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मंगलवार, 3 मार्च 2020

आस्था और ईश्वर - 2

पता नहीं जाग रहा था या सो रहा था , सपने में आया या अवचेतन में ही था।  मगर अर्धजागृत अवस्था में बंद आँखों में ही खीर खाने की इच्छा हुई , प्रबल इच्छा , कि आज खीर खानी चाहिए।  मिलेगी या नहीं दिल यह नहीं सोच रहा था , बस यूँ  ही खीर खाने की इच्छा हुई। 

आंख खोली , लेटे लेटे ही अपने ख्याल पर पहले हैरानी हुई फिर हंसी आई , क्यूंकि  दिल की इच्छा और दिमाग की वास्तविकता में बड़ा ही फर्क होता है।  मेरे साथ भी अपवाद नहीं था।  उस मकान में , अकेले , खीर का स्वाद कल्पना में ही मिल सकता था।  क्युकी जेब की हालत तो ऐसी नहीं थी की  खुद बना के खा ली जाय , यहाँ तो चाय भी बिना दूध और चीनी के पी रहा था , और खीर , वाकई में कमाल  हो जाता अगर बना पता तो। 

सितारे गर्दिश में थे , यथार्थ की तो बात ही छोड़िये , कल्पना में भी अँधेरा ही था। खैर बिस्तर  से उठा , स्नान आदि से निवृत हो कर , परमात्मा को नमन करा,  फिर वही काली चाय।  दरवाजे पर जा के अखबार उठा लाया , अखबार पढ़ने का जो नशा होता है गज़ब का होता है , एक एक लाइन पढ़ने में जो आनंद है वो और कहाँ ! इतनी ग़ुरबत में भी अखबार वाले का बिल तो चुका ही देता था।  एक DTC बस के लिए आल-रुट पास और अख़बार का बिल। बस यही दो चीज़े थी जो ठीक थीं वरना तो हालत खराब ही थे। 

चाय पीते पीते ही नज़र पड़ी की YMCA, जय सिंह रोड, में किसी  सेमिनार का आयोजन था , एंट्री फ्री थी , दिन भी रविवार का था , बात सिर्फ इतनी थी की दिन कैसे गुजारा जाय।  खाली बैठूँ तो ख्याल परेशान कर देते है , और अपने आप से कोई कितना लड़ सकता था।  तो यही सोचा की चला जाय , कपड़े बदले और चल दिया।  कुछ न करने से कुछ करना भला , फिर यूँ भी उम्मीद थी की चाय-नाश्ते का तो आयोजक इंतज़ाम करता ही है। 

11 बजे आयोजन स्थल ,YMCA, पहुंच गया।  सेमीनार दो घंटे का था , पुरे ध्यान से, मनोयोग से सुना , और करना भी क्या था।  बस आंकलन वहीं गड़बड़ाया जब सिर्फ कॉफ़ी ही पीने  को मिली , आयोजक भी शायद मुझसे थोड़े ही अमीर रहे होंगे।  खाली पेट कॉफ़ी , पी ही ली जबकि पता थे की खाली पेट में दिक्कत हो सकती है , मगर खाली पेट भी तो दिक्कत ही थी। 

ठीक 2 बजे सेमीनार खतम , अब क्या करुँ , दोपहर का वक्त , ठीक ठाक सी भूख भी लगने लगी थी।  बाहर निकल कर सोच में पड़ गया की अब क्या करुँ ,किस तरफ जाऊँ।  कुछ देर रुक कर सोचता रहा फिर यूँ ही बेमकसद  सीधे हाथ की तरफ चल दिया। ख्याल में भी नहीं था की परमात्मा की तरफ चल पड़ा हूँ। कुछ दूर ही चला था की नज़र ''श्री बंगला साहिब गुरूद्वारे '' पर पड़ी , रुका और सोचा की चलो बाबा जी के दर्शन ही कर लें , यूँ भी परमात्मा ने मुझे कभी अकेला छोड़ा नहीं था , गुरूद्वारे पर मुझे सदैव आस्था रही है, बचपन से ही गुरूद्वारे से एक सम्बन्ध है। 

सोचते सोचते दरबार साहिब पहुंच ही गया , माथा टेका और दरबार में बैठ गया , थोड़ी ठंडक मिली शरीर को भी मन को भी , पर  कब तक बैठता , उठा और बाहर आ गया , बाहर निकलते निकलते अचानक भूख ने फिर अंदर से आवाज़ दे दी , मगर इस बार दिल और दिमाग दोनों ने ही पेट को तस्सल्ली दे दी की मिल जायगा कुछ , पक्का है।  क्योकि दरवाजा परमात्मा का था , मैं लंगर-खाने में जा के बैठ गया और कुछ देर में मेरा नंबर भी आ गया की जा के पंक्ति में बैठूँ। थाली -कटोरी-गिलास परोस दिए गए , बस अब इंतज़ार था भोजन (प्रसाद)का, और जो चीज़ उस बुजुर्ग सरदार ने मेरी कटोरी में डाली , मैं अवाक सा देखता ही रह गया , वो खीर थी , खीर , वही खीर जिसे खाने की इच्छा सुबह से ही थी।  वो मुझे यहाँ मिली , न पैसे की जरुरत थी , न मांगने की , मेरे परमात्मा ने मुझे अपने पास बुला , अपनी गोद में बिठा कर खिलाई।  बस आंसु टपके ही नहीं वरना निकल तो आए  थे।  अब मैंने सिर्फ खीर ही नहीं , पेट भर कर भोजन भी खाया। 

गुरु साहिब की लंगर परम्परा का दर्शन भी आज समझ आ गया था , लंगर एक भरोसा है की ईश्वर है, जो विश्वास दिलाता है की  तू अकेला और असहाय नहीं है। 

बस अब ये सोच रहा था की मेरी खीर खाने  की इच्छा पूरी करने को ईश्वर ने यहाँ बुलाया था या यहाँ बुलाना था इसलिए खीर की इच्छा मेरे भीतर पैदा की ! 

जिसके सिर ऊपर तू स्वामी , सो दुःख कैसा पावे  . . . . . 

एक नाम ओंकार। 


(आचार्य गोविंदम )

आस्था और ईश्वर - 2 

नोट :- आपके सुझाव आमंत्रित हैं , कृपया बताय जरूर 

   

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